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इतिहास History 1.प्रागैतिहासिक काल ( Prehistoric Period ) 2.आद्य ऐतिहासिक काल Protohistoric Period ) 3. ऐतिहासिक काल ( Historical Period ) 1.प्रागैतिहासिक काल ( Prehistoric Period ) पुरा पाषाण काल Paleolithic Period मध्य पाषाण काल Mesolithic Period नव पाषाण काल Neolithic Period ताम्र पाषाण काल Chalcolithic Period Important........  अतीत का अध्ययन इतिहास कहलाता है  इतिहास के जनक हेरोडोटस को कहते हैं  मानव जाति का पालन अफ्रीका महादेश को कहते हैं  जबकि सभ्यता का पालना एशिया महादेश को कहते हैं   इतिहास को तीन खंडों में बांटते हैं - प्रागैतिहासिक काल ( Prehistoric Period ) आद्य ऐतिहासिक काल ( Protohistoric Period ) ऐतिहासिक काल ( Historical Period ) 1. प्रागैतिहासिक काल ( Prehistoric Period History ) इतिहास का वह समय जिसमें मानव लिखना पढ़ना नहीं जानता था इसकी जानकारी केवल पुरातात्विक साक्ष्य से मिली है इसके अंतर्गत पाषाण काल को रखते हैं| पाषाण काल ( stone Age )  वह समय जब मानव पत्थर के औजार एवं हथियार को उपयोग करता था पाषाण काल कहलाता है|  भारत में सर्वप्र...

कुकुरमुत्ता (कविता) / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला", UPSC prapretion, hindi literature,(by adarsh kumar raaj)

   कुकुरमुत्ता (कविता) / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" » एक थे नव्वाब, फ़ारस से मंगाए थे गुलाब। बड़ी बाड़ी में लगाए देशी पौधे भी उगाए रखे माली, कई नौकर गजनवी का बाग मनहर लग रहा था। एक सपना जग रहा था सांस पर तहजबी की, गोद पर तरतीब की। क्यारियां सुन्दर बनी चमन में फैली घनी। फूलों के पौधे वहाँ लग रहे थे खुशनुमा। बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी, जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी, चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास, गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज, और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई, रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई, आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद, जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद। फ़लों के भी पेड़ थे, आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे। चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध, लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द, चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां, बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ। साफ़ राह, सरा दानों ओर, दूर तक फैले हुए कुल छोर, बीच में आरामगाह दे रही थी बड़प्पन की थाह। कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी, कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी। आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब, बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब; वहीं...

बिहारी रत्नाकर।। संपादक ।जगन्नाथदास रत्नाकर।। पद संख्या 1 से 50 तक।।For।UPSC and all exam।। akraajeducation।।

  बिहारी रत्नाकर के महत्वपूर्ण दोहे: मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ। जा तन की झाँई परे, स्याम हरित-दुति होइ॥1।। अपने अंग के जानि कै जोबन-नृपति प्रबीन। स्तन, मन, नैन, नितम्ब की बड़ौ इजाफा कीन।।2।। अर तैं टरत न बर-परे, दई मरक मनु मैन। होड़ाहोडी बढि चले चितु, चतुराई, नैन।।3।। औरें-ओप कनीनिकनु गनी घनी-सिरताज। मनीं धनी के नेह की बनीं छनीं पट लाज।।4।। सनि-कज्जल चख-झख-लगन उपज्यौ सुदिन सनेहु। क्यौं न नृपति ह्वै भोगवै लहि सुदेसु सबु देहु।।5। सालति है नटसाल सी, क्यौं हूँ निकसति नाँहि। मनमथ-नेजा-नोक सी खुभी खुभी जिय माँहि।।6।। जुवति जोन्ह मैं मिलि गई, नैन न होति लखाइ। सौंधे कैं डोरैं लगी अली चली सँग जाइ।।7।। हौं रीझी, लखि रीझिहौ छबिहिं छबीले लाल। सोनजुही सी होवति दुति-मिलत मालती माल।।8।। बहके, सब जिय की कहत, ठौरु कुठौरु लखैं न। छिन औरे, छिन और से, ए छबि छाके नैन।।9।। फिरि फिरि चितु उत हीं रहतु, टुटी लाज की लाव। अंग-अंग-छबि-झौंर मैं भयौ भौंर की नाव।।10।। नीकी दई अनाकानी, फीकी परी गुहारि। तज्यौ मनौ तारन-बिरदु बारक बारनु तारि।।11।। चितई ललचौहैँ चखनु डटि घूँघट-पट माँह। छह सौं चली छुवाइ कै छिनकु...
     चौपाई :   तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा॥ सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। प्रेम सहित मैं कहेउँ भवानी॥ 1 ॥ भावार्थ:-गरुड़ ने आदरपूर्वक मेरे चरणों में सिर नवाया और फिर मुझको अपना संदेह सुनाया। हे भवानी! उनकी विनती और कोमल वाणी सुनकर मैंने प्रेमसहित उनसे कहा-॥ 1 ॥   मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही॥ तबहिं होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा॥ 2 ॥ भावार्थ:-हे गरुड़! तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हे किस प्रकार समझाऊँ ?  सब संदेहों का तो तभी नाश हो जब दीर्घ काल तक सत्संग किया जाए॥ 2 ॥   सुनिअ तहाँ हरिकथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई॥ जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना॥ 3 ॥ भावार्थ:-और वहाँ (सत्संग में) सुंदर हरिकथा सुनी जाए जिसे मुनियों ने अनेकों प्रकार से गाया है और जिसके आदि ,  मध्य और अंत में भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी ही प्रतिपाद्य प्रभु हैं॥ 3 ॥   नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहु तुम्ह जाई॥ जाइहि सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा॥ 4 ॥ भावार्थ:-हे भा...