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चौपाई :

 तेहिं मम पद सादर सिरु नावा। पुनि आपन संदेह सुनावा॥

सुनि ता करि बिनती मृदु बानी। प्रेम सहित मैं कहेउँ भवानी॥1

भावार्थ:-गरुड़ ने आदरपूर्वक मेरे चरणों में सिर नवाया और फिर मुझको अपना संदेह सुनाया। हे भवानी! उनकी विनती और कोमल वाणी सुनकर मैंने प्रेमसहित उनसे कहा-॥1

 मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही। कवन भाँति समुझावौं तोही॥

तबहिं होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा॥2

भावार्थ:-हे गरुड़! तुम मुझे रास्ते में मिले हो। राह चलते मैं तुम्हे किस प्रकार समझाऊँसब संदेहों का तो तभी नाश हो जब दीर्घ काल तक सत्संग किया जाए॥2

 सुनिअ तहाँ हरिकथा सुहाई। नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई॥

जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना॥3

भावार्थ:-और वहाँ (सत्संग में) सुंदर हरिकथा सुनी जाए जिसे मुनियों ने अनेकों प्रकार से गाया है और जिसके आदिमध्य और अंत में भगवान्‌ श्री रामचंद्रजी ही प्रतिपाद्य प्रभु हैं॥3

 नित हरि कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सुनहु तुम्ह जाई॥

जाइहि सुनत सकल संदेहा। राम चरन होइहि अति नेहा॥4

भावार्थ:-हे भाई! जहाँ प्रतिदिन हरिकथा होती हैतुमको मैं वहीं भेजता हूँतुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते ही तुम्हारा सब संदेह दूर हो जाएगा और तुम्हें श्री रामजी के चरणों में अत्यंत प्रेम होगा॥4

दोहा :

 बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।

मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥61

भावार्थ:-सत्संग के बिना हरि की कथा सुनने को नहीं मिलतीउसके बिना मोह नहीं भागता और मोह के गए बिना श्री रामचंद्रजी के चरणों में दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता॥61

चौपाई :

 मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किएँ जोग तप ग्यान बिरागा॥

उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला। तहँ रह काकभुसुण्डि सुसीला॥1

भावार्थ:-बिना प्रेम के केवल योगतपज्ञान और वैराग्यादि के करने से श्री रघुनाथजी नहीं मिलते। (अतएव तुम सत्संग के लिए वहाँ जाओ जहाँ) उत्तर दिशा में एक सुंदर नील पर्वत है। वहाँ परम सुशील काकभुशुण्डिजी रहते हैं॥1

राम भगति पथ परम प्रबीना। ग्यानी गुन गृह बहु कालीना॥

राम कथा सो कहइ निरंतर। सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर॥2

भावार्थ:-वे रामभक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैंज्ञानी हैंगुणों के धाम हैं और बहुत काल के हैं। वे निरंतर श्री रामचंद्रजी की कथा कहते रहते हैंजिसे भाँति-भाँति के श्रेष्ठ पक्षी आदर सहित सुनते हैं॥2

 जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी। होइहि मोह जनित दुख दूरी॥

मैं जब तेहि सब कहा बुझाई। चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई॥3

भावार्थ:-वहाँ जाकर श्री हरि के गुण समूहों को सुनो। उनके सुनने से मोह से उत्पन्न तुम्हारा दुःख दूर हो जाएगा। मैंने उसे जब सब समझाकर कहातब वह मेरे चरणों में सिर नवाकर हर्षित होकर चला गया॥3

 ताते उमा न मैं समुझावा। रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा॥

होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना। सो खोवै चह कृपानिधाना॥4

भावार्थ:-हे उमा! मैंने उसको इसीलिए नहीं समझाया कि मैं श्री रघुनाथजी की कृपा से उसका मर्म (भेद) पा गया था। उसने कभी अभिमान किया होगाजिसको कृपानिधान श्री रामजी नष्ट करना चाहते हैं॥4

 कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही कै भाषा॥

प्रभु माया बलवंत भवानी। जाहि न मोह कवन अस ग्यानी॥5

भावार्थ:-फिर कुछ इस कारण भी मैंने उसको अपने पास नहीं रखा कि पक्षी पक्षी की ही बोली समझते हैं। हे भवानी! प्रभु की माया (बड़ी ही) बलवती हैऐसा कौन ज्ञानी हैजिसे वह न मोह ले?5

दोहा :

 ग्यानी भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान।

ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान॥62 क॥

भावार्थ:-जो ज्ञानियों में और भक्तों में शिरोमणि हैं एवं त्रिभुवनपति भगवान्‌ के वाहन हैंउन गरुड़ को भी माया ने मोह लिया। फिर भी नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया करते हैं॥62 (क)॥

 सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन।

अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान॥62 ख॥

भावार्थ:-यह माया जब शिवजी और ब्रह्माजी को भी मोह लेती हैतब दूसरा बेचारा क्या चीज हैजी में ऐसा जानकर ही मुनि लोग उस माया के स्वामी भगवान्‌ का भजन करते हैं॥62 (ख)॥

चौपाई :

 गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुण्डा। मति अकुंठ हरि भगति अखंडा॥

देखि सैल प्रसन्न मन भयउ। माया मोह सोच सब गयऊ॥1

भावार्थ:-गरुड़जी वहाँ गए जहाँ निर्बाध बुद्धि और पूर्ण भक्ति वाले काकभुशुण्डि बसते थे। उस पर्वत को देखकर उनका मन प्रसन्न हो गया और (उसके दर्शन से ही) सब मायामोह तथा सोच जाता रहा॥1

 करि तड़ाग मज्जन जलपाना। बट तर गयउ हृदयँ हरषाना॥

बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए। सुनै राम के चरित सुहाए॥2

भावार्थ:-तालाब में स्नान और जलपान करके वे प्रसन्नचित्त से वटवृक्ष के नीचे गए। वहाँ श्री रामजी के सुंदर चरित्र सुनने के लिए बूढ़े-बूढ़े पक्षी आए हुए थे॥2

कथा अरंभ करै सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा॥

आवत देखि सकल खगराजा। हरषेउ बायस सहित समाजा॥3

भावार्थ:-भुशुण्डिजी कथा आरंभ करना ही चाहते थे कि उसी समय पक्षीराज गरुड़जी वहाँ जा पहुँचे। पक्षियों के राजा गरुड़जी को आते देखकर काकभुशुण्डिजी सहित सारा पक्षी समाज हर्षित हुआ॥3

 अति आदर खगपति कर कीन्हा। स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा॥

करि पूजा समेत अनुरागा। मधुर बचन तब बोलेउ कागा॥4

भावार्थ:-उन्होंने पक्षीराज गरुड़जी का बहुत ही आदर-सत्कार किया और स्वागत (कुशल) पूछकर बैठने के लिए सुंदर आसन दिया। फिर प्रेम सहित पूजा कर के कागभुशुण्डिजी मधुर वचन बोले-॥4

दोहा :

 नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज।

आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज॥63 क॥

भावार्थ:-हे नाथ ! हे पक्षीराज ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया। आप जो आज्ञा दें मैं अब वही करूँ। हे प्रभो ! आप किस कार्य के लिए आए हैं ?63 (क)॥

 सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस।॥

जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्ह महेस॥63 ख॥

भावार्थ:-पक्षीराज गरुड़जी ने कोमल वचन कहे- आप तो सदा ही कृतार्थ रूप हैंजिनकी बड़ाई स्वयं महादेवजी ने आदरपूर्वक अपने श्रीमुख से की है॥63 (ख)॥

चौपाई :

 सुनहु तात जेहि कारन आयउँ। सो सब भयउ दरस तव पायउँ॥

देखि परम पावन तव आश्रम। गयउ मोह संसय नाना भ्रम॥1

भावार्थ:-हे तात! सुनिएमैं जिस कारण से आया थावह सब कार्य तो यहाँ आते ही पूरा हो गया। फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गए। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह संदेह और अनेक प्रकार के भ्रम सब जाते रहे॥1

 अब श्रीराम कथा अति पावनि। सदा सुखद दुख पुंज नसावनि॥

सादर तात सुनावहु मोही। बार बार बिनवउँ प्रभु तोही॥2

भावार्थ:-अब हे तात! आप मुझे श्री रामजी की अत्यंत पवित्र करने वालीसदा सुख देने वाली और दुःख समूह का नाश करने वाली कथा सादर सहित सुनाएँ। हे प्रभो! मैं बार-बार आप से यही विनती करता हूँ॥2

 सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता। सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता॥

भयउ तास मन परम उछाहा। लाग कहै रघुपति गुन गाहा॥3

भावार्थ:-गरुड़जी की विनम्रसरलसुंदर प्रेमयुक्तसुप्रद और अत्यंत पवित्र वाणी सुनते ही भुशण्डिजी के मन में परम उत्साह हुआ और वे श्री रघुनाथजी के गुणों की कथा कहने लगे॥3

 प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी॥

पुनि नारद कर मोह अपारा। कहेसि बहुरि रावन अवतारा॥4

भावार्थ:-हे भवानी! पहले तो उन्होंने बड़े ही प्रेम से रामचरित मानस सरोवर का रूपक समझाकर कहा। फिर नारदजी का अपार मोह और फिर रावण का अवतार कहा॥4

 प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई॥5

भावार्थ:-फिर प्रभु के अवतार की कथा वर्णन की। तदनन्तर मन लगाकर श्री रामजी की बाल लीलाएँ कहीं॥5

दोहा :

 बालचरित कहि बिबिधि बिधि मन महँ परम उछाह।

रिषि आगवन कहेसि पुनि श्रीरघुबीर बिबाह॥64

भावार्थ:-मन में परम उत्साह भरकर अनेकों प्रकार की बाल लीलाएँ कहकरफिर ऋषि विश्वामित्रजी का अयोध्या आना और श्री रघुवीरजी का विवाह वर्णन किया॥64

चौपाई :

 बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा। पुनि नृप बचन राज रस भंगा॥

पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा॥1

भावार्थ:-फिर श्री रामजी के राज्याभिषेक का प्रसंग फिर राजा दशरथजी के वचन से राजरस (राज्याभिषेक के आनंद) में भंग पड़नाफिर नगर निवासियों का विरहविषाद और श्री राम-लक्ष्मण का संवाद (बातचीत) कहा॥1

 बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा॥

बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना॥2

भावार्थ:-श्री राम का वनगमनकेवट का प्रेमगंगाजी से पार उतरकर प्रयाग में निवासवाल्मीकिजी और प्रभु श्री रामजी का मिलन और जैसे भगवान्‌ चित्रकूट में बसेवह सब कहा॥2

 सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना॥

करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहाँ प्रभु सुख रासी॥3

भावार्थ:-फिर मंत्री सुमंत्रजी का नगर में लौटनाराजा दशरथजी का मरणभरतजी का (ननिहाल से) अयोध्या में आना और उनके प्रेम का बहुत वर्णन किया। राजा की अन्त्येष्टि क्रिया करके नगर निवासियों को साथ लेकर भरतजी वहाँ गए जहाँ सुख की राशि प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥3

 पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए॥

भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी॥4

भावार्थ:-फिर श्री रघुनाथजी ने उनको बहुत प्रकार से समझायाजिससे वे खड़ाऊँ लेकर अयोध्यापुरी लौट आएयह सब कथा कही। भरतजी की नन्दीग्राम में रहने की रीतिइंद्रपुत्र जयंत की नीच करनी और फिर प्रभु श्री रामचंद्रजी और अत्रिजी का मिलाप वर्णन किया॥4

दोहा :

 कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग।

बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभ अगस्ति सतसंग॥65

भावार्थ:-जिस प्रकार विराध का वध हुआ और शरभंगजी ने शरीर त्याग कियावह प्रसंग कहकरफिर सुतीक्ष्णजी का प्रेम वर्णन करके प्रभु और अगस्त्यजी का सत्संग वृत्तान्त कहा॥65

चौपाई :

 कहि दंडक बन पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई॥

पुनि प्रभु पंचबटीं कृत बासा। भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा॥1

भावार्थ:-दंडकवन का पवित्र करना कहकर फिर भुशुण्डिजी ने गृध्रराज के साथ मित्रता का वर्णन किया। फिर जिस प्रकार प्रभु ने पंचवटी में निवास किया और सब मुनियों के भय का नाश किया,1

 पुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा॥

खर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना॥2

भावार्थ:-और फिर जैसे लक्ष्मणजी को अनुपम उपदेश दिया और शूर्पणखा को कुरूप कियावह सब वर्णन किया। फिर खर-दूषण वध और जिस प्रकार रावण ने सब समाचार जानावह बखानकर कहा,2

 दसकंधर मारीच बतकही। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही॥

पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना॥3

भावार्थ:-तथा जिस प्रकार रावण और मारीच की बातचीत हुईवह सब उन्होंने कही। फिर माया सीता का हरण और श्री रघुवीर के विरह का कुछ वर्णन किया॥3

 पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्हीं। बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही॥

बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबर तीरा॥4

भावार्थ:-फिर प्रभु ने गिद्ध जटायु की जिस प्रकार क्रिया कीकबन्ध का वध करके शबरी को परमगति दी और फिर जिस प्रकार विरह वर्णन करते हुए श्री रघुवीरजी पंपासर के तीर पर गएवह सब कहा॥4

दोहा :

 प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग।

पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग॥66 क॥

भावार्थ:-प्रभु और नारदजी का संवाद और मारुति के मिलने का प्रसंग कहकर फिर सुग्रीव से मित्रता और बालि के प्राणनाश का वर्णन किया॥66 (क)॥

 कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास।

बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास॥66 ख॥

भावार्थ:-सुग्रीव का राजतिलक करके प्रभु ने प्रवर्षण पर्वत पर निवास कियावह तथा वर्षा और शरद् का वर्णनश्री रामजी का सुग्रीव पर रोष और सुग्रीव का भय आदि प्रसंग कहे॥66 (ख)॥

चौपाई :

 जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिदि धाए॥

बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँति। कपिन्ह बहोरि मिला संपाती॥1

भावार्थ:-जिस प्रकार वानरराज सुग्रीव ने वानरों को भेजा और वे सीताजी की खोज में जिस प्रकार सब दिशाओं में गएजिस प्रकार उन्होंने बिल में प्रवेश किया और फिर जैसे वानरों को सम्पाती मिलावह कथा कही॥1

 सुनि सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा॥

लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा॥2

भावार्थ:-सम्पाती से सब कथा सुनकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी जिस तरह अपार समुद्र को लाँघ गएफिर हनुमान्‌जी ने जैसे लंका में प्रवेश किया और फिर जैसे सीताजी को धीरज दियासो सब कहा॥2

 बन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी॥

आए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही की कुसल सुनाई॥3

भावार्थ:-अशोक वन को उजाड़कररावण को समझाकरलंकापुरी को जलाकर फिर जैसे उन्होंने समुद्र को लाँघा और जिस प्रकार सब वानर वहाँ आए जहाँ श्री रघुनाथजी थे और आकर श्री जानकीजी की कुशल सुनाई,3

 सेन समेति जथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा॥

मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई॥4

भावार्थ:-फिर जिस प्रकार सेना सहित श्री रघुवीर जाकर समुद्र के तट पर उतरे और जिस प्रकार विभीषणजी आकर उनसे मिलेवह सब और समुद्र के बाँधने की कथा उसने सुनाई॥4

दोहा :

 सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार।

गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार॥67 क॥

भावार्थ:-पुल बाँधकर जिस प्रकार वानरों की सेना समुद्र के पार उतरी और जिस प्रकार वीर श्रेष्ठ बालिपुत्र अंगद दूत बनकर गए वह सब कहा॥67 (क)॥

 निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार।

कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार॥67 ख॥

भावार्थ:-फिर राक्षसों और वानरों के युद्ध का अनेकों प्रकार से वर्णन किया। फिर कुंभकर्ण और मेघनाद के बलपुरुषार्थ और संहार की कथा कही॥67 (ख)॥

चौपाई :

 निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना॥

रावन बध मंदोदरि सोका। राज बिभीषन देव असोका॥1

भावार्थ:-नाना प्रकार के राक्षस समूहों के मरण तथा श्री रघुनाथजी और रावण के अनेक प्रकार के युद्ध का वर्णन किया। रावण वधमंदोदरी का शोकविभीषण का राज्याभिषेक और देवताओं का शोकरहित होना कहकर,1

 सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्हि अस्तुति कर जोरी॥

पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता॥2

भावार्थ:-फिर सीताजी और श्री रघुनाथजी का मिलाप कहा। जिस प्रकार देवताओं ने हाथ जोड़कर स्तुति की और फिर जैसे वानरों समेत पुष्पक विमान पर चढ़कर कृपाधाम प्रभु अवधपुरी को चलेवह कहा॥2

 जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए॥

कहेसि बहोरि राम अभिषेका। पुर बरनत नृपनीति अनेका॥3

भावार्थ:-जिस प्रकार श्री रामचंद्रजी अपने नगर (अयोध्या) में आएवे सब उज्ज्वल चरित्र काकभुशुण्डिजी ने विस्तारपूर्वक वर्णन किए। फिर उन्होंने श्री रामजी का राज्याभिषेक कहा। (शिवजी कहते हैं-) अयोध्यापुरी का और अनेक प्रकार की राजनीति का वर्णन करते हुए-॥3

 कथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी॥

सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा॥4

भावार्थ:-भुशुण्डिजी ने वह सब कथा कही जो हे भवानी! मैंने तुमसे कही। सारी रामकथा सुनकर गरुड़जी मन में बहुत उत्साहित (आनंदित) होकर वचन कहने लगे-॥4

सोरठा :

 गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित।

भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक॥68 क॥

भावार्थ:-श्री रघुनाथजी के सब चरित्र मैंने सुनेजिससे मेरा संदेह जाता रहा। हे काकशिरोमणि! आपके अनुग्रह से श्री रामजी के चरणों में मेरा प्रेम हो गया॥68 (क)॥

मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि।

चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन॥68 ख॥

भावार्थ:-युद्ध में प्रभु का नागपाश से बंधन देखकर मुझे अत्यंत मोह हो गया था कि श्री रामजी तो सच्चिदानंदघन हैंवे किस कारण व्याकुल हैं॥68 (ख)॥

चौपाई :

 देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी॥

सोई भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना॥1

भावार्थ:-बिलकुल ही लौकिक मनुष्यों का सा चरित्र देखकर मेरे हृदय में भारी संदेह हो गया। मैं अब उस भ्रम (संदेह) को अपने लिए हित करके समझता हूँ। कृपानिधान ने मुझ पर यह बड़ा अनुग्रह किया॥1

 जो अति आतप ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानइ सोई॥

जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही॥2

भावार्थ:-जो धूप से अत्यंत व्याकुल होता हैवही वृक्ष की छाया का सुख जानता है। हे तात! यदि मुझे अत्यंत मोह न होता तो मैं आपसे किस प्रकार मिलता?2

 सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई। अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई॥

निगमागम पुरान मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा॥3

भावार्थ:-और कैसे अत्यंत विचित्र यह सुंदर हरिकथा सुनताजो आपने बहुत प्रकार से गाई हैवेदशास्त्र और पुराणों का यही मत हैसिद्ध और मुनि भी यही कहते हैंइसमें संदेह नहीं कि-॥3

 संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही॥

राम कपाँ तव दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ॥4

भावार्थ:-शुद्ध (सच्चे) संत उसी को मिलते हैंजिसे श्री रामजी कृपा करके देखते हैं। श्री रामजी की कृपा से मुझे आपके दर्शन हुए और आपकी कृपा से मेरा संदेह चला गया॥4

दोहा :

सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग।

पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग॥69 क॥

भावार्थ:-पक्षीराज गरुड़जी की विनय और प्रेमयुक्त वाणी सुनकर काकभुशुण्डिजी का शरीर पुलकित हो गयाउनके नेत्रों में जल भर आया और वे मन में अत्यंत हर्षित हुए॥69 (क)॥

 श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।

पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास॥69 ख॥

भावार्थ:-हे उमा! सुंदर बुद्धि वाले सुशीलपवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर सज्जन अत्यंत गोपनीय (सबके सामने प्रकट न करने योग्य) रहस्य को भी प्रकट कर देते हैं॥69 (ख)॥

चौपाई :

 बोलेउ काकभुसुंड बहोरी। नभग नाथ पर प्रीति न थोरी॥

सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे। कृपापात्र रघुनायक केरे॥1

भावार्थ:-काकभुशुण्डिजी ने फिर कहा- पक्षीराज पर उनका प्रेम कम न था (अर्थात्‌ बहुत था)- हे नाथ! आप सब प्रकार से मेरे पूज्य हैं और श्री रघुनाथजी के कृपापात्र हैं॥1

 तुम्हहि न संसय मोह न माया। मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दाया॥

पठइ मोह मिस खगपति तोही। रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही॥2

भावार्थ:-आपको न संदेह है और न मोह अथवा माया ही है। हे नाथ! आपने तो मुझ पर दया की है। हे पक्षीराज! मोह के बहाने श्री रघुनाथजी ने आपको यहाँ भेजकर मुझे बड़ाई दी है॥2

 तुम्ह निज मोह कही खग साईं। सो नहिं कछु आचरज गोसाईं॥

नारद भव बिरंचि सनकादी। जे मुनिनायक आतमबादी॥3

भावार्थ:-हे पक्षियों के स्वामी! आपने अपना मोह कहासो हे गोसाईं! यह कुछ आश्चर्य नहीं है। नारदजीशिवजीब्रह्माजी और सनकादि जो आत्मतत्त्व के मर्मज्ञ और उसका उपदेश करने वाले श्रेष्ठ मुनि हैं॥3

 मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव नजेही॥

तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा॥4

भावार्थ:-उनमें से भी किस-किस को मोह ने अंधा (विवेकशून्य) नहीं कियाजगत्‌ में ऐसा कौन है जिसे काम ने न नचाया होतृष्णा ने किसको मतवाला नहीं बनायाक्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया?4

दोहा :

ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।

केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥ 70 क॥

भावार्थ:-इस संसार में ऐसा कौन ज्ञानीतपस्वीशूरवीरकविविद्वान और गुणों का धाम हैजिसकी लोभ ने विडंबना (मिट्टी पलीद) न की हो॥ 70 (क)॥

 श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।

मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि॥ 70 ख॥

भावार्थ:-लक्ष्मी के मद ने किसको टेढ़ा और प्रभुता ने किसको बहरा नहीं कर दियाऐसा कौन है जिसे मृगनयनी (युवती स्त्री) के नेत्र बाण न लगे हों॥ 70 (ख)॥

चौपाई :

 गुन कृत सन्यपात नहिं केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही॥

जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा॥1

भावार्थ:-(रजतम आदि) गुणों का किया हुआ सन्निपात किसे नहीं हुआऐसा कोई नहीं है जिसे मान और मद ने अछूता छोड़ा हो। यौवन के ज्वर ने किसे आपे से बाहर नहीं कियाममता ने किस के यश का नाश नहीं किया?1

 मच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा॥

चिंता साँपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया॥2

भावार्थ:-मत्सर (डाह) ने किसको कलंक नहीं लगायाशोक रूपी पवन ने किसे नहीं हिला दियाचिंता रूपी साँपिन ने किसे नहीं खा लियाजगत में ऐसा कौन हैजिसे माया न व्यापी हो?2

 कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा॥

सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥3

भावार्थ:-मनोरथ क्रीड़ा हैशरीर लकड़ी है। ऐसा धैर्यवान्‌ कौन हैजिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा होपुत्र कीधन की और लोक प्रतिष्ठा कीइन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया (बिगाड़ नहीं दिया)?3

 यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरनै पारा॥

सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी॥3

भावार्थ:-मनोरथ क्रीड़ा हैशरीर लकड़ी है। ऐसा धैर्यवान्‌ कौन हैजिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा होपुत्र कीधन की और लोक प्रतिष्ठा कीइन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया (बिगाड़ नहीं दिया)?3

दोहा :

 ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड।

सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड॥ 71 क॥

भावार्थ:-माया की प्रचंड सेना संसार भर में छाई हुई है। कामादि (कामक्रोध और लोभ) उसके सेनापति हैं और दम्भकपट और पाखंड योद्धा हैं॥ 71 (क)॥

 सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि।

छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि॥ 71 ख॥

भावार्थ:-वह माया श्री रघुवीर की दासी है। यद्यपि समझ लेने पर वह मिथ्या ही हैकिंतु वह श्री रामजी की कृपा के बिना छूटती नहीं। हे नाथ! यह मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ॥ 71 (ख)॥

चौपाई :

 जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहुँ न पावा॥

सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा॥1

भावार्थ:-जो माया सारे जगत्‌ को नचाती है और जिसका चरित्र (करनी) किसी ने नहीं लख पायाहे खगराज गरुड़जी! वही माया प्रभु श्री रामचंद्रजी की भृकुटी के इशारे पर अपने समाज (परिवार) सहित नटी की तरह नाचती है॥1

 सोइ सच्चिदानंद घन रामा। अज बिग्यान रूप बल धामा॥

ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता। अकिल अमोघसक्ति भगवंता॥2

भावार्थ:-श्री रामजी वही सच्चिदानंदघन हैं जो अजन्मेविज्ञानस्वरूपरूप और बल के धामसर्वव्यापक एवं व्याप्य (सर्वरूप)अखंडअनंतसंपूर्णअमोघशक्ति (जिसकी शक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती) और छह ऐश्वर्यों से युक्त भगवान्‌ हैं॥2

 अगुन अदभ्र गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता॥

निर्मम निराकार निरमोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा॥3

भावार्थ:-वे निर्गुण (माया के गुणों से रहित)महान्‌वाणी और इंद्रियों से परेसब कुछ देखने वालेनिर्दोषअजेयममतारहितनिराकार (मायिक आकार से रहित)मोहरहितनित्यमायारहितसुख की राशि,3

 प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी॥

इहाँ मोह कर कारन नाहीं। रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं॥4

भावार्थ:-प्रकृति से परेप्रभु (सर्वसमर्थ)सदा सबके हृदय में बसने वालेइच्छारहित विकाररहितअविनाशी ब्रह्म हैं। यहाँ (श्री राम में) मोह का कारण ही नहीं है। क्या अंधकार का समूह कभी सूर्य के सामने जा सकता है?4

दोहा :

 भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।

किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप॥ 72 क॥

भावार्थ:-भगवान्‌ प्रभु श्री रामचंद्रजी ने भक्तों के लिए राजा का शरीर धराण किया और साधारण मनुष्यों के से अनेकों परम पावन चरित्र किए॥ 72 (क)॥

 जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ।

सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ॥ 72 ख॥

भावार्थ:-जैसे कोई नट (खेल करने वाला) अनेक वेष धारण करके नृत्य करता है और वही-वही (जैसा वेष होता हैउसी के अनुकूल) भाव दिखलाता हैपर स्वयं वह उनमें से कोई हो नहीं जाता, 72 (ख)॥

चौपाई :

 असि रघुपति लीला उरगारी। दनुज बिमोहनि जन सुखकारी॥

जे मति मलिन बिषय बस कामी। प्रभु पर मोह धरहिं इमि स्वामी॥1

भावार्थ:-हे गरुड़जी! ऐसी ही श्री रघुनाथजी की यह लीला हैजो राक्षसों को विशेष मोहित करने वाली और भक्तों को सुख देने वाली है। हे स्वामी! जो मनुष्य मलिन बुद्धिविषयों के वश और कामी हैंवे ही प्रभु पर इस प्रकार मोह का आरोप करते हैं॥1

 नयन दोष जा कहँ जब होई। पीत बरन ससि कहुँ कह सोई॥

जब जेहि दिसि भ्रम होई खगेसा। सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा॥2

भावार्थ:-जब जिसको (कवँल आदि) नेत्र दोष होता हैतब वह चंद्रमा को पीले रंग का कहता है। हे पक्षीराज! जब जिसे दिशाभ्रम होता हैतब वह कहता है कि सूर्य पश्चिम में उदय हुआ है॥2

 नौकारूढ़ चलत जग देखा। अचल मोह बस आपुहि लेखा॥

बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादी। कहहिं परस्पर मिथ्याबादी॥3

भावार्थ:-नौका पर चढ़ा हुआ मनुष्य जगत को चलता हुआ देखता है और मोहवश अपने को अचल समझता है। बालक घूमते (चक्राकार दौड़ते) हैंघर आदि नहीं घूमते। पर वे आपस में एक-दूसरे को झूठा कहते हैं॥3

 हरि बिषइक अस मोह बिहंगा। सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा॥

माया बस मतिमंद अभागी। हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी॥4

भावार्थ:-हे गरुड़जी! श्री हरि के विषय में मोह की कल्पना भी ऐसी ही हैभगवान्‌ में तो स्वप्न में भी अज्ञान का प्रसंग (अवसर) नहीं हैकिंतु जो माया के वशमंदबुद्धि और भाग्यहीन हैं और जिनके हृदय पर अनेकों प्रकार के परदे पड़े हैं॥4

 ते सठ हठ बस संसय करहीं। निज अग्यान राम पर धरहीं॥5

भावार्थ:-वे मूर्ख हठ के वश होकर संदेह करते हैं और अपना अज्ञान श्री रामजी पर आरोपित करते हैं॥5

दोहा :

 काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप।

ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप॥ 73 क॥

भावार्थ:-जो कामक्रोधमद और लोभ में रत हैं और दुःख रूप घर में आसक्त हैंवे श्री रघुनाथजी को कैसे जान सकते हैंवे मूर्ख तो अंधकार रूपी कुएँ में पड़े हुए हैं॥ 73 (क)॥

 निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोई।

सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होई॥ 73 ख॥

भावार्थ:-निर्गुण रूप अत्यंत सुलभ (सहज ही समझ में आ जाने वाला) हैपरंतु (गुणातीत दिव्य) सगुण रूप को कोई नहीं जानताइसलिए उन सगुण भगवान्‌ के अनेक प्रकार के सुगम और अगम चरित्रों को सुनकर मुनियों के भी मन को भ्रम हो जाता है॥ 73 (ख)॥

चौपाई :

 सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई। कहउँ जथामति कथा सुहाई।।

जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही। सोउ सब कथा सुनावउँ तोही॥1

भावार्थ:-हे पक्षीराज गरुड़जी! श्री रघुनाथजी की प्रभुता सुनिए। मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वह सुहावनी कथा कहता हूँ। हे प्रभो! मुझे जिस प्रकार मोह हुआवह सब कथा भी आपको सुनाता हूँ॥1

 राम कृपा भाजन तुम्ह ताता। हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता॥

ताते नहिं कछु तुम्हहि दुरावउँ। परम रहस्य मनोहर गावउँ॥2

भावार्थ:-हे तात! आप श्री रामजी के कृपा पात्र हैं। श्री हरि के गुणों में आपकी प्रीति हैइसीलिए आप मुझे सुख देने वाले हैं। इसी से मैं आप से कुछ भी नहीं छिपाता और अत्यंत रहस्य की बातें आपको गाकर सुनाता हूँ॥2

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ। जन अभिमान न राखहिं काऊ॥

संसृत मूल सूलप्रद नाना। सकल सोक दायक अभिमाना॥3

भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी का सहज स्वभाव सुनिए। वे भक्त में अभिमान कभी नहीं रहने देतेक्योंकि अभिमान जन्म-मरण रूप संसार का मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों तथा समस्त शोकों का देने वाला है॥3

 ताते करहिं कृपानिधि दूरी। सेवक पर ममता अति भूरी॥

जिमि सिसु तन ब्रन होई गोसाईं। मातु चिराव कठिन की नाईं॥4

भावार्थ:-इसीलिए कृपानिधि उसे दूर कर देते हैंक्योंकि सेवक पर उनकी बहुत ही अधिक ममता है। हे गोसाईं! जैसे बच्चे के शरीर में फोड़ा हो जाता हैतो माता उसे कठोर हदय की भाँति चिरा डालती है॥4

दोहा :

 जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर।

ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर॥ 74 क॥

भावार्थ:-यद्यपि बच्चा पहले (फोड़ा चिराते समय) दुःख पाता है और अधीर होकर रोता हैतो भी रोग के नाश के लिए माता बच्चे की उस पीड़ा को कुछ भी नहीं गिनती (उसकी परवाह नहीं करती और फोड़े को चिरवा ही डालती है)॥ 74 (क)॥

तिमि रघुपति निज दास कर हरहिं मान हित लागि।

तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि॥ 74 ख॥

भावार्थ:-उसी प्रकार श्री रघुनाथजी अपने दास का अभिमान उसके हित के लिए हर लेते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसे प्रभु को भ्रम त्यागकर क्यों नहीं भजते॥ 74 (ख)॥

चौपाई :

 राम कृपा आपनि जड़ताई। कहउँ खगेस सुनहु मन लाई॥

जब जब राम मनुज तनु धरहीं। भक्त हेतु लीला बहु करहीं॥1

भावार्थ:-हे हे गरुड़जी! श्री रामजी की कृपा और अपनी जड़ता (मूर्खता) की बात कहता हूँमन लगाकर सुनिए। जब-जब श्री रामचंद्रजी मनुष्य शरीर धारण करते हैं और भक्तों के लिए बहुत सी लीलाएँ करते हैं॥1

 तब तब अवधपुरी मैं जाऊँ। बालचरित बिलोकि हरषाऊँ॥

जन्म महोत्सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई॥2

भावार्थ:-तब-तब मैं अयोध्यापुरी जाता हूँ और उनकी बाल लीला देखकर हर्षित होता हूँ। वहाँ जाकर मैं जन्म महोत्सव देखता हूँ और (भगवान्‌ की शिशु लीला में) लुभाकर पाँच वर्ष तक वहीं रहता हूँ॥2

 इष्टदेव मम बालक रामा। सोभा बपुष कोटि सत कामा॥

निज प्रभु बदन निहारि निहारी। लोचन सुफल करउँ उरगारी॥3

भावार्थ:-बालक रूप श्री रामचंद्रजी मेरे इष्टदेव हैंजिनके शरीर में अरबों कामदेवों की शोभा है। हे गरुड़जी! अपने प्रभु का मुख देख-देखकर मैं नेत्रों को सफल करता हूँ॥3

 लघु बायस बपु धरि हरि संगा। देखउँ बालचरित बहु रंगा॥4

भावार्थ:-छोटे से कौए का शरीर धरकर और भगवान्‌ के साथ-साथ फिरकर मैं उनके भाँति-भाँति के बाल चरित्रों को देखा करता हूँ॥4

दोहा :

 लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ।

जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाई करि खाउँ॥ 75 क॥

भावार्थ:-लड़कपन में वे जहाँ-जहाँ फिरते हैंवहाँ-वहाँ मैं साथ-साथ उड़ता हूँ और आँगन में उनकी जो जूठन पड़ती हैवही उठाकर खाता हूँ॥ 75 (क)॥

 एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर।

सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर॥ 75 ख॥

भावार्थ:-एक बार श्री रघुवीर ने सब चरित्र बहुत अधिकता से किए। प्रभु की उस लीला का स्मरण करते ही काकभुशुण्डिजी का शरीर (प्रेमानन्दवश) पुलकित हो गया॥ 75 (ख)॥

चौपाई :

 कहइ भसुंड सुनहु खगनायक। राम चरित सेवक सुखदायक॥

नृप मंदिर सुंदर सब भाँती। खचित कनक मनि नाना जाती॥1

भावार्थ:-भुशुण्डिजी कहने लगे- हे पक्षीराज! सुनिएश्री रामजी का चरित्र सेवकों को सुख देने वाला है। (अयोध्या का) राजमहल सब प्रकार से सुंदर है। सोने के महल में नाना प्रकार के रत्न जड़े हुए हैं॥1

 बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई। जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई॥

बाल बिनोद करत रघुराई। बिचरत अजिर जननि सुखदाई॥2

भावार्थ:-सुंदर आँगन का वर्णन नहीं किया जा सकताजहाँ चारों भाई नित्य खेलते हैं। माता को सुख देने वाले बालविनोद करते हुए श्री रघुनाथजी आँगन में विचर रहे हैं॥2

 मरकत मृदुल कलेवर स्यामा। अंग अंग प्रति छबि बहु कामा॥

नव राजीव अरुन मृदु चरना। पदज रुचिर नख ससि दुति हरना॥3

भावार्थ:-मरकत मणि के समान हरिताभ श्याम और कोमल शरीर है। अंग-अंग में बहुत से कामदेवों की शोभा छाई हुई है। नवीन (लाल) कमल के समान लाल-लाल कोमल चरण हैं। सुंदर अँगुलियाँ हैं और नख अपनी ज्योति से चंद्रमा की कांति को हरने वाले हैं॥3

 ललित अंक कुलिसादिक चारी। नूपुर चारु मधुर रवकारी॥

चारु पुरट मनि रचित बनाई। कटि किंकिनि कल मुखर सुहाई॥4

भावार्थ:-(तलवे में) वज्रादि (वज्रअंकुशध्वजा और कमल) के चार सुंदर चिह्न हैंचरणों में मधुर शब्द करने वाले सुंदर नूपुर हैंमणियोंरत्नों से जड़ी हुई सोने की बनी हुई सुंदर करधनी का शब्द सुहावना लग रहा है॥4

दोहा :

 रेखा त्रय सुंदर उदर नाभी रुचिर गँभीर।

उर आयत भ्राजत बिबिधि बाल बिभूषन चीर॥ 76

भावार्थ:-उदर पर सुंदर तीन रेखाएँ (त्रिवली) हैंनाभि सुंदर और गहरी है। विशाल वक्षःस्थल पर अनेकों प्रकार के बच्चों के आभूषण और वस्त्र सुशोभित हैं॥ 76

चौपाई :

 अरुन पानि नख करज मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर॥

कंध बाल केहरि दर ग्रीवा। चारु चिबुक आनन छबि सींवा॥1

भावार्थ:-लाल-लाल हथेलियाँनख और अँगुलियाँ मन को हरने वाले हैं और विशाल भुजाओं पर सुंदर आभूषण हैं। बालसिंह (सिंह के बच्चे) के से कंधे और शंख के समान (तीन रेखाओं से युक्त) गला है। सुंदर ठुड्डी है और मुख तो छवि की सीमा ही है॥1

 कलबल बचन अधर अरुनारे। दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे॥

ललित कपोल मनोहर नासा। सकल सुखद ससि कर सम हासा॥2

भावार्थ:-कलबल (तोतले) वचन हैंलाल-लाल होठ हैं। उज्ज्वलसुंदर और छोटी-छोटी (ऊपर और नीचे) दो-दो दंतुलियाँ हैं। सुंदर गालमनोहर नासिका और सब सुखों को देने वाली चंद्रमा की (अथवा सुख देने वाली समस्त कलाओं से पूर्ण चंद्रमा की) किरणों के समान मधुर मुस्कान है॥2

 नील कंज लोचन भव मोचन। भ्राजत भाल तिलक गोरोचन॥

बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए। कुंचित कच मेचक छबि छाए॥3

भावार्थ:-नीले कमल के समान नेत्र जन्म-मृत्यु (के बंधन) से छुड़ाने वाले हैं। ललाट पर गोरोचन का तिलक सुशोभित है। भौंहें टेढ़ी हैंकान सम और सुंदर हैंकाले और घुँघराले केशों की छबि छा रही है॥3

 पीत झीनि झगुली तन सोही। किलकनि चितवनि भावति मोही॥

रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी॥4

भावार्थ:-पीली और महीन झँगुली शरीर पर शोभा दे रही है। उनकी किलकारी और चितवन मुझे बहुत ही प्रिय लगती है। राजा दशरथजी के आँगन में विहार करने वाले रूप की राशि श्री रामचंद्रजी अपनी परछाहीं देखकर नाचते हैं,4

 मोहि सन करहिं बिबिधि बिधि क्रीड़ा। बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा॥

किलकत मोहि धरन जब धावहिं। चलउँ भागि तब पूप देखावहिं॥5

भावार्थ:-और मुझसे बहुत प्रकार के खेल करते हैंजिन चरित्रों का वर्णन करते मुझे लज्जा आती है! किलकारी मारते हुए जब वे मुझे पकड़ने दौड़ते और मैं भाग चलतातब मुझे पूआ दिखलाते थे॥5

दोहा :

 आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं।

जाऊँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं॥ 77 क॥

भावार्थ:-मेरे निकट आने पर प्रभु हँसते हैं और भाग जाने पर रोते हैं और जब मैं उनका चरण स्पर्श करने के लिए पास जाता हूँतब वे पीछे फिर-फिरकर मेरी ओर देखते हुए भाग जाते हैं॥77 (क)॥

 प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह।

कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह॥ 77 ख॥

भावार्थ:-साधारण बच्चों जैसी लीला देखकर मुझे मोह (शंका) हुआ कि सच्चिदानंदघन प्रभु यह कौन (महत्त्व का) चरित्र (लीला) कर रहे हैं॥ 77 (ख)॥

चौपाई :

 एतना मन आनत खगराया। रघुपति प्रेरित ब्यापी माया॥

सो माया न दुखद मोहि काहीं। आन जीव इव संसृत नाहीं॥1

भावार्थ:-हे पक्षीराज! मन में इतनी (शंका) लाते ही श्री रघुनाथजी के द्वारा प्रेरित माया मुझ पर छा गईपरंतु वह माया न तो मुझे दुःख देने वाली हुई और न दूसरे जीवों की भाँति संसार में डालने वाली हुई॥1

 नाथ इहाँ कछु कारन आना। सुनहु सो सावधान हरिजाना॥

ग्यान अखंड एक सीताबर। माया बस्य जीव सचराचर॥2

भावार्थ:-हे नाथ! यहाँ कुछ दूसरा ही कारण है। हे भगवान्‌ के वाहन गरुड़जी! उसे सावधान होकर सुनिए। एक सीतापति श्री रामजी ही अखंड मानवस्वरूप हैं और जड़-चेतन सभी जीव माया के वश हैं॥2

जौं सब कें रह ज्ञान एकरस। ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस॥

माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुन खानी॥3

भावार्थ:-यदि जीवों को एकरस (अखंड) ज्ञान रहेतो कहिएफिर ईश्वर और जीव में भेद ही कैसाअभिमानी जीव माया के वश है और वह (सत्त्वरजतम इन) तीनों गुणों की खान माया ईश्वर के वश में है॥3

 परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता॥

मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया॥4

भावार्थ:-जीव परतंत्र हैभगवान्‌ स्वतंत्र हैंजीव अनेक हैंश्री पति भगवान्‌ एक हैं। यद्यपि माया का किया हुआ यह भेद असत्‌ है तथापि वह भगवान्‌ के भजन बिना करोड़ों उपाय करने पर भी नहीं जा सकता॥4

दोहा :

रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान।

ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान॥ 78 क॥

भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के भजन बिना जो मोक्ष पद चाहता हैवह मनुष्य ज्ञानवान्‌ होने पर भी बिना पूँछ और सींग का पशु है॥ 78 (क)॥

 राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ।

सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ॥ 78 ख॥

भावार्थ:-सभी तारागणों के साथ सोलह कलाओं से पूर्ण चंद्रमा उदय हो और जितने पर्वत हैं उन सब में दावाग्नि लगा दी जाएतो भी सूर्य के उदय हुए बिना रात्रि नहीं जा सकती॥ 78 (ख)॥

चौपाई :

 ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा॥

हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या॥1

भावार्थ:-हे पक्षीराज! इसी प्रकार श्री हरि के भजन बिना जीवों का क्लेश नहीं मिटता। श्री हरि के सेवक को अविद्या नहीं व्यापती। प्रभु की प्रेरणा से उसे विद्या व्यापती है॥1

 ताते नास न होइ दास कर। भेद भगति बाढ़इ बिहंगबर॥

भ्रम तें चकित राम मोहि देखा। बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा॥2

भावार्थ:-हे पक्षीश्रेष्ठ! इससे दास का नाश नहीं होता और भेद भक्ति बढ़ती है। श्री रामजी ने मुझे जब भ्रम से चकित देखातब वे हँसे। वह विशेष चरित्र सुनिए॥2

 तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ। जाना अनुज न मातु पिताहूँ॥

जानु पानि धाए मोहि धरना। स्यामल गात अरुन कर चरना॥3

भावार्थ:-उस खेल का मर्म किसी ने नहीं जानान छोटे भाइयों ने और न माता-पिता ने ही। वे श्याम शरीर और लाल-लाल हथेली और चरणतल वाले बाल रूप श्री रामजी घुटने और हाथों के बल मुझे पकड़ने को दौड़े॥3

 तब मैं भागि चलेउँ उरगारी। राम गहन कहँ भुजा पसारी॥

जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा। तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा॥4

भावार्थ:-हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! तब मैं भाग चला। श्री रामजी ने मुझे पकड़ने के लिए भुजा फैलाई। मैं जैसे-जैसे आकाश में दूर उड़तावैसे-वैसे ही वहाँ श्री हरि की भुजा को अपने पास देखता था॥4

दोहा :

 ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात।

जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात॥ 79 क॥

भावार्थ:-मैं ब्रह्मलोक तक गया और जब उड़ते हुए मैंने पीछे की ओर देखातो हे तात! श्री रामजी की भुजा में और मुझमें केवल दो ही अंगुल का बीच था॥ 79 (क)॥

 सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि।

गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि॥ 79 ख॥

भावार्थ:-सातों आवरणों को भेदकर जहाँ तक मेरी गति थी वहाँ तक मैं गया। पर वहाँ भी प्रभु की भुजा को (अपने पीछे) देखकर मैं व्याकुल हो गया॥ 79 (ख)॥

चौपाई :

 मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ। पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ॥

मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं। बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं॥1

भावार्थ:-जब मैं भयभीत हो गयातब मैंने आँखें मूँद लीं। फिर आँखें खोलकर देखते ही अवधपुरी में पहुँच गया। मुझे देखकर श्री रामजी मुस्कुराने लगे। उनके हँसते ही मैं तुरंत उनके मुख में चला गया।1

 उदर माझ सुनु अंडज राया। देखउँ बहु ब्रह्मांड निकाया॥

अति बिचित्र तहँ लोक अनेका। रचना अधिक एक ते एका॥2

भावार्थ:-हे पक्षीराज! सुनिएमैंने उनके पेट में बहुत से ब्रह्माण्डों के समूह देखे। वहाँ (उन ब्रह्माण्डों में) अनेकों विचित्र लोक थेजिनकी रचना एक से एक की बढ़कर थी॥2

 कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा। अगनित उडगन रबि रजनीसा॥

अगनित लोकपाल जम काला। अगनित भूधर भूमि बिसाला॥3

भावार्थ:-करोड़ों ब्रह्माजी और शिवजीअनगिनत तारागणसूर्य और चंद्रमाअनगिनत लोकपालयम और कालअनगिनत विशाल पर्वत और भूमि,3

 सागर सरि सर बिपिन अपारा। नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा॥।

सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर। चारि प्रकार जीव सचराचर॥4

भावार्थ:-असंख्य समुद्रनदीतालाब और वन तथा और भी नाना प्रकार की सृष्टि का विस्तार देखा। देवतामुनिसिद्धनागमनुष्यकिन्नर तथा चारों प्रकार के जड़ और चेतन जीव देखे॥4

दोहा :

 जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ।

सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ॥80 क॥

भावार्थ:-जो कभी न देखा थान सुना था और जो मन में भी नहीं समा सकता था (अर्थात जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी)वही सब अद्भुत सृष्टि मैंने देखी। तब उसका किस प्रकार वर्णन किया जाए!॥80 (क)॥

 एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक।

एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक॥80 ख॥

भावार्थ:-मैं एक-एक ब्रह्माण्ड में एक-एक सौ वर्ष तक रहता। इस प्रकार मैं अनेकों ब्रह्माण्ड देखता फिरा॥80 (ख)॥

चौपाई :

 लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता। भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता॥

नर गंधर्ब भूत बेताला। किंनर निसिचर पसु खग ब्याला॥1

भावार्थ:-प्रत्येक लोक में भिन्न-भिन्न ब्रह्माभिन्न-भिन्न विष्णुशिवमनुदिक्पालमनुष्यगंधर्वभूतवैतालकिन्नरराक्षसपशुपक्षीसर्प,1

 देव दनुज गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनहि भाँती॥

महि सरि सागर सर गिरि नाना। सब प्रपंच तहँ आनइ आना॥2

भावार्थ:-तथा नाना जाति के देवता एवं दैत्यगण थे। सभी जीव वहाँ दूसरे ही प्रकार के थे। अनेक पृथ्वीनदीसमुद्रतालाबपर्वत तथा सब सृष्टि वहाँ दूसरे ही दूसरी प्रकार की थी॥2

 अंडकोस प्रति प्रति निज रूपा। दाखेउँ जिनस अनेक अनूपा॥

अवधपुरी प्रति भुवन निनारी। सरजू भिन्न भिन्न नर नारी॥3

भावार्थ:-प्रत्येक ब्रह्माण्ड में मैंने अपना रूप देखा तथा अनेकों अनुपम वस्तुएँ देखीं। प्रत्येक भुवन में न्यारी ही अवधपुरीभिन्न ही सरयूजी और भिन्न प्रकार के ही नर-नारी थे॥3

 दसरथ कौसल्या सुनु ताता। बिबिध रूप भरतादिक भ्राता॥

प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा। देखउँ बालबिनोद अपारा॥4

भावार्थ:-हे तात! सुनिएदशरथजीकौसल्याजी और भरतजी आदि भाई भी भिन्न-भिन्न रूपों के थे। मैं प्रत्येक ब्रह्माण्ड में रामावतार और उनकी अपार बाल लीलाएँ देखता फिरता॥4

दोहा :

 भिन्न भिन्न मैं दीख सबु अति बिचित्र हरिजान।

अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन॥81 क॥

भावार्थ:-हे हरिवाहन! मैंने सभी कुछ भिन्न-भिन्न और अत्यंत विचित्र देखा। मैं अनगिनत ब्रह्माण्डों में फिरापर प्रभु श्री रामचंद्रजी को मैंने दूसरी तरह का नहीं देखा॥81 (क)॥

 सोइ सिसुपन सोइ सोभा सोइ कृपाल रघुबीर।

भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह समीर॥81 ख॥

भावार्थ:-सर्वत्र वही शिशुपनवही शोभा और वही कृपालु श्री रघुवीर! इस प्रकार मोह रूपी पवन की प्रेरणा से मैं भुवन-भुवन में देखता-फिरता था॥81 (ख)॥

चौपाई :

भ्रमत मोहि ब्रह्मांड अनेका। बीते मनहुँ कल्प सत एका॥

फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ। तहँ पुनि रहि कछु काल गवाँयउँ॥1

भावार्थ:-अनेक ब्रह्माण्डों में भटकते मुझे मानो एक सौ कल्प बीत गए। फिरता-फिरता मैं अपने आश्रम में आया और कुछ काल वहाँ रहकर बिताया॥1

 निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ। निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ॥

देखउँ जन्म महोत्सव जाई। जेहि बिधि प्रथम कहा मैं गाई॥2

भावार्थ:-फिर जब अपने प्रभु का अवधपुरी में जन्म (अवतार) सुन पायातब प्रेम से परिपूर्ण होकर मैं हर्षपूर्वक उठ दौड़ा। जाकर मैंने जन्म महोत्सव देखाजिस प्रकार मैं पहले वर्णन कर चुका हूँ॥2

 राम उदर देखेउँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना॥

तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना। माया पति कृपाल भगवाना॥3

भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी के पेट में मैंने बहुत से जगत्‌ देखेजो देखते ही बनते थेवर्णन नहीं किए जा सकते। वहाँ फिर मैंने सुजान माया के स्वामी कृपालु भगवान्‌ श्री राम को देखा॥3

 करउँ बिचार बहोरि बहोरी। मोह कलिल ब्यापित मति मोरी॥

उभय घरी महँ मैं सब देखा। भयउँ भ्रमित मन मोह बिसेषा॥4

भावार्थ:-मैं बार-बार विचार करता था। मेरी बुद्धि मोह रूपी कीचड़ से व्याप्त थी। यह सब मैंने दो ही घड़ी में देखा। मन में विशेष मोह होने से मैं थक गया॥4

दोहा :

 देखि कृपाल बिकल मोहि बिहँसे तब रघुबीर।

बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर॥82 क॥

भावार्थ:-मुझे व्याकुल देखकर तब कृपालु श्री रघुवीर हँस दिए। हे धीर बुद्धि गरुड़जी! सुनिएउनके हँसते ही मैं मुँह से बाहर आ गया॥82 (क)॥

 सोइ लरिकाई मो सन करन लगे पुनि राम।

कोटि भाँति समुझावउँ मनु न लहइ बिश्राम॥82 ख॥

भावार्थ:-श्री रामचंद्रजी मेरे साथ फिर वही लड़कपन करने लगे। मैं करोड़ों (असंख्य) प्रकार से मन को समझाता थापर वह शांति नहीं पाता था॥82 (ख)॥

चौपाई :

 देखि चरित यह सो प्रभुताई। समुझत देह दसा बिसराई॥

धरनि परेउँ मुख आव न बाता। त्राहि त्राहि आरत जन त्राता॥1

भावार्थ:-यह (बाल) चरित्र देखकर और पेट के अंदर (देखी हुई) उस प्रभुता का स्मरण कर मैं शरीर की सुध भूल गया और हे आर्तजनों के रक्षक! रक्षा कीजिएरक्षा कीजिएपुकारता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। मुख से बात नहीं निकलती थी!॥1

 प्रेमाकुल प्रभु मोहि बिलोकी। निज माया प्रभुता तब रोकी॥

कर सरोज प्रभु मम सिर धरेऊ। दीनदयाल सकल दुख हरेऊ॥2

भावार्थ:-तदनन्तर प्रभु ने मुझे प्रेमविह्वल देखकर अपनी माया की प्रभुता (प्रभाव) को रोक लिया। प्रभु ने अपना करकमल मेरे सिर पर रखा। दीनदयालु ने मेरा संपूर्ण दुःख हर लिया॥2

 कीन्ह राम मोहि बिगत बिमोहा। सेवक सुखद कृपा संदोहा॥

प्रभुता प्रथम बिचारि बिचारी। मन महँ होइ हरष अति भारी॥3

भावार्थ:-सेवकों को सुख देने वालेकृपा के समूह (कृपामय) श्री रामजी ने मुझे मोह से सर्वथा रहित कर दिया। उनकी पहले वाली प्रभुता को विचार-विचारकर (याद कर-करके) मेरे मन में बड़ा भारी हर्ष हुआ॥3

 भगत बछलता प्रभु कै देखी। उपजी मम उर प्रीति बिसेषी॥

सजल नयन पुलकित कर जोरी। कीन्हिउँ बहु बिधि बिनय बहोरी॥4

भावार्थ:-प्रभु की भक्तवत्सलता देखकर मेरे हृदय में बहुत ही प्रेम उत्पन्न हुआ। फिर मैंने (आनंद से) नेत्रों में जल भरकरपुलकित होकर और हाथ जोड़कर बहुत प्रकार से विनती की॥4

दोहा :

 सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास।

बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमानिवास॥83 क॥

भावार्थ:-मेरी प्रेमयुक्त वाणी सुनकर और अपने दास को दीन देखकर रमानिवास श्री रामजी सुखदायकगंभीर और कोमल वचन बोले-॥83 (क)॥

 काकभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।

अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुख खानि॥83 ख॥

भावार्थ:-हे काकभुशुण्डि! तू मुझे अत्यंत प्रसन्न जानकर वर माँग। अणिमा आदि अष्ट सिद्धियाँदूसरी ऋद्धियाँ तथा संपूर्ण सुखों की खान मोक्ष,83 (ख)॥

चौपाई :

ग्यान बिबेक बिरति बिग्याना। मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना॥

आजु देउँ सब संसय नाहीं। मागु जो तोहि भाव मन माहीं॥1

भावार्थ:-ज्ञानविवेकवैराग्यविज्ञान, (तत्त्वज्ञान) और वे अनेकों गुण जो जगत्‌ में मुनियों के लिए भी दुर्लभ हैंये सब मैं आज तुझे दूँगाइसमें संदेह नहीं। जो तेरे मन भावेसो माँग ले॥1

 सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ। मन अनुमान करन तब लागेउँ॥

प्रभु कह देन सकल सुख सही। भगति आपनी देन न कही॥2

भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर मैं बहुत ही प्रेम में भर गया। तब मन में अनुमान करने लगा कि प्रभु ने सब सुखों के देने की बात कहीयह तो सत्य हैपर अपनी भक्ति देने की बात नहीं कही॥2

 भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे॥

भजन हीन सुख कवने काजा। अस बिचारि बोलेउँ खगराजा॥3

भावार्थ:-भक्ति से रहित सब गुण और सब सुख वैसे ही (फीके) हैं जैसे नमक के बिना बहुत प्रकार के भोजन के पदार्थ। भजन से रहित सुख किस काम केहे पक्षीराज! ऐसा विचार कर मैं बोला-॥3

 जौं प्रभु होइ प्रसन्न बर देहू। मो पर करहु कृपा अरु नेहू॥

मन भावत बर मागउँ स्वामी। तुम्ह उदार उर अंतरजामी॥4

भावार्थ:-हे प्रभो! यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देते हैं और मुझ पर कृपा और स्नेह करते हैंतो हे स्वामी! मैं अपना मनभाया वर माँगता हूँ। आप उदार हैं और हृदय के भीतर की जानने वाले हैं॥4

दोहा :

अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव।

जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव॥84 क॥

भावार्थ:-आपकी जिस अविरल (प्रगाढ़) एवं विशुद्ध (अनन्य निष्काम) भक्ति को श्रुति और पुराण गाते हैंजिसे योगीश्वर मुनि खोजते हैं और प्रभु की कृपा से कोई विरला ही जिसे पाता है॥84 (क)॥

 भगत कल्पतरू प्रनत हित कृपा सिंधु सुखधाम।

सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम॥84 ख॥

भावार्थ:-हे भक्तों के (मन इच्छित फल देने वाले) कल्पवृक्ष! हे शरणागत के हितकारी! हे कृपासागर! हे सुखधान श्री रामजी! दया करके मुझे अपनी वही भक्ति दीजिए॥84 (ख)॥

चौपाई :

 एवमस्तु कहि रघुकुलनायक। बोले बचन परम सुखदायक॥

सुनु बायस तैं सहज सयाना। काहे न मागसि अस बरदाना॥1

भावार्थ:-‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहकर रघुवंश के स्वामी परम सुख देने वाले वचन बोले- हे काक! सुनतू स्वभाव से ही बुद्धिमान्‌ है। ऐसा वरदान कैसे न माँगता?1

 सब सुख खानि भगति तैं मागी। नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी॥

जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं। जे जप जोग अनल तन दहहीं॥2

भावार्थ:-तूने सब सुखों की खान भक्ति माँग लीजगत्‌ में तेरे समान बड़भागी कोई नहीं है। वे मुनि जो जप और योग की अग्नि से शरीर जलाते रहते हैंकरोड़ों यत्न करके भी जिसको (जिस भक्ति को) नहीं पाते॥2

 रीझेउँ देखि तोरि चतुराई। मागेहु भगति मोहि अति भाई॥

सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरें। सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरें॥3

भावार्थ:-वही भक्ति तूने माँगी। तेरी चतुरता देखकर मैं रीझ गया। यह चतुरता मुझे बहुत ही अच्छी लगी। हे पक्षी! सुनमेरी कृपा से अब समस्त शुभ गुण तेरे हृदय में बसेंगे॥3

 भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। जोग चरित्र रहस्य बिभागा॥

जानब तैं सबही कर भेदा। मम प्रसाद नहिं साधन खेदा॥4

भावार्थ:-भक्तिज्ञानविज्ञानवैराग्ययोगमेरी लीलाएँ और उनके रहस्य तथा विभाग- इन सबके भेद को तू मेरी कृपा से ही जान जाएगा। तुझे साधन का कष्ट नहीं होगा॥4

दोहा :

माया संभव भ्रम सब अब न ब्यापिहहिं तोहि।

जानेसु ब्रह्म अनादि अज अगुन गुनाकर मोहि॥85 क॥

भावार्थ:-माया से उत्पन्न सब भ्रम अब तुझको नहीं व्यापेंगे। मुझे अनादिअजन्माअगुण (प्रकृति के गुणों से रहित) और (गुणातीत दिव्य) गुणों की खान ब्रह्म जानना॥85 (क)॥

 मोहि भगत प्रिय संतत अस बिचारि सुनु काग।

कायँ बचन मन मम पद करेसु अचल अनुराग॥85 ख॥

भावार्थ:-हे काक! सुनमुझे भक्त निरंतर प्रिय हैंऐसा विचार कर शरीरवचन और मन से मेरे चरणों में अटल प्रेम करना॥85 (ख)॥

चौपाई :

 अब सुनु परम बिमल मम बानी। सत्य सुगम निगमादि बखानी॥

निज सिद्धांत सुनावउँ तोही। सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही॥1

भावार्थ:-अब मेरी सत्यसुगमवेदादि के द्वारा वर्णित परम निर्मल वाणी सुन। मैं तुझको यह ‘निज सिद्धांत’ सुनाता हूँ। सुनकर मन में धारण कर और सब तजकर मेरा भजन कर॥1

 बमम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा॥

सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥2

भावार्थ:-यह सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है। (इसमें) अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी मुझे प्रिय हैंक्योंकि सभी मेरे उत्पन्न किए हुए हैं। (किंतु) मनुष्य मुझको सबसे अधिक अच्छे लगते हैं॥2

 तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी। तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी॥

तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी। ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी॥3

भावार्थ:-उन मनुष्यों में द्विजद्विजों में भी वेदों को (कंठ में) धारण करने वालेउनमें भी वेदोक्त धर्म पर चलने वालेउनमें भी विरक्त (वैराग्यवान्‌) मुझे प्रिय हैं। वैराग्यवानों में फिर ज्ञानी और ज्ञानियों से भी अत्यंत प्रिय विज्ञानी हैं॥3

 तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा। जेहि गति मोरि न दूसरि आसा॥

पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं। मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं॥4

भावार्थ:-विज्ञानियों से भी प्रिय मुझे अपना दास हैजिसे मेरी ही गति (आश्रय) हैकोई दूसरी आशा नहीं है। मैं तुझसे बार-बार सत्य (‘निज सिद्धांत’) कहता हूँ कि मुझे अपने सेवक के समान प्रिय कोई भी नहीं है॥4

 भगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई॥

भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी॥5

भावार्थ:-भक्तिहीन ब्रह्मा ही क्यों न होवह मुझे सब जीवों के समान ही प्रिय हैपरंतु भक्तिमान्‌ अत्यंत नीच भी प्राणी मुझे प्राणों के समान प्रिय हैयह मेरी घोषणा है॥5

दोहा :

 सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग।

श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग॥86

भावार्थ:-पवित्रसुशील और सुंदर बुद्धि वाला सेवकबताकिसको प्यारा नहीं लगतावेद और पुराण ऐसी ही नीति कहते हैं। हे काक! सावधान होकर सुन॥86

चौपाई :

 एक पिता के बिपुल कुमारा। होहिं पृथक गुन सील अचारा॥

कोउ पंडित कोउ तापस ग्याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता॥1

भावार्थ:-एक पिता के बहुत से पुत्र पृथक-पृथक्‌ गुणस्वभाव और आचरण वाले होते हैं। कोई पंडित होता हैकोई तपस्वीकोई ज्ञानीकोई धनीकोई शूरवीरकोई दानी,1

 कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई। सब पर पितहि प्रीति सम होई॥

कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा। सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा॥2

भावार्थ:-कोई सर्वज्ञ और कोई धर्मपरायण होता है। पिता का प्रेम इन सभी पर समान होता हैपरंतु इनमें से यदि कोई मनवचन और कर्म से पिता का ही भक्त होता हैस्वप्न में भी दूसरा धर्म नहीं जानता,2

 सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना। जद्यपि सो सब भाँति अयाना॥

एहि बिधि जीव चराचर जेते। त्रिजग देव नर असुर समेते॥3

भावार्थ:-वह पुत्र पिता को प्राणों के समान प्रिय होता हैयद्यपि (चाहे) वह सब प्रकार से अज्ञान (मूर्ख) ही हो। इस प्रकार तिर्यक्‌ (पशु-पक्षी)देवमनुष्य और असुरों समेत जितने भी चेतन और जड़ जीव हैं,3

अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया॥

तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया। भजै मोहि मन बच अरु काया॥4

भावार्थ:-(उनसे भरा हुआ) यह संपूर्ण विश्व मेरा ही पैदा किया हुआ है। अतः सब पर मेरी बराबर दया हैपरंतु इनमें से जो मद और माया छोड़कर मनवचन और शरीर से मुझको भजता है,4

दोहा :

 पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।

सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥87 क॥

भावार्थ:-वह पुरुष होनपुंसक होस्त्री हो अथवा चर-अचर कोई भी जीव होकपट छोड़कर जो भी सर्वभाव से मुझे भजता हैवही मुझे परम प्रिय है॥87 (क)॥

सोरठा :

 सत्य कहउँ खग तोहि सुचि सेवक मम प्रानप्रिय।

अस बिचारि भजु मोहि परिहरि आस भरोस सब॥87 ख॥

भावार्थ:-हे पक्षी! मैं तुझसे सत्य कहता हूँपवित्र (अनन्य एवं निष्काम) सेवक मुझे प्राणों के समान प्यारा है। ऐसा विचारकर सब आशा-भरोसा छोड़कर मुझी को भज॥87 (ख)॥

चौपाई :

 कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही॥

प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ॥1

भावार्थ:-तुझे काल कभी नहीं व्यापेगा। निरंतर मेरा स्मरण और भजन करते रहना। प्रभु के वचनामृत सुनकर मैं तृप्त नहीं होता था। मेरा शरीर पुलकित था और मन में मैं अत्यंत ही हर्षित हो रहा था॥1

 सो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना॥

प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किम सकहिं तिन्हहि नहिं बयना॥2

भावार्थ:-वह सुख मन और कान ही जानते हैं। जीभ से उसका बखान नहीं किया जा सकता। प्रभु की शोभा का वह सुख नेत्र ही जानते हैं। पर वे कह कैसे सकते हैं। उनके वाणी तो है नहीं॥2

 बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई॥

सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितई मातु लागी अति भूखा॥3

भावार्थ:-मुझे बहुत प्रकार से भलीभाँति समझकर और सुख देकर प्रभु फिर वही बालकों के खेल करने लगे। नेत्रों में जल भरकर और मुख को कुछ रूखा (सा) बनाकर उन्होंने माता की ओर देखा- (और मुखाकृति तथा चितवन से माता को समझा दिया कि) बहुत भूख लगी है॥3

 देखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई॥

गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना॥4

भावार्थ:-यह देखकर माता तुरंत उठ दौड़ीं और कोमल वचन कहकर उन्होंने श्री रामजी को छाती से लगा लिया। वे गोद में लेकर उन्हें दूध पिलाने लगीं और श्री रघुनाथजी (उन्हीं) की ललित लीलाएँ गाने लगीं॥4

सोरठा :

 जेहि सुख लाग पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद।

अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन॥88 क॥

भावार्थ:-जिस सुख के लिए (सबको) सुख देने वाले कल्याण रूप त्रिपुरारि शिवजी ने अशुभ वेष धारण कियाउस सुख में अवधपुरी के नर-नारी निरंतर निमग्न रहते हैं॥88 (क)॥

 सोई सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ।

ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति॥88 ख॥

भावार्थ:-उस सुख का लवलेशमात्र जिन्होंने एक बार स्वप्न में भी प्राप्त कर लियाहे पक्षीराज! वे सुंदर बुद्धि वाले सज्जन पुरुष उसके सामने ब्रह्मसुख को भी कुछ नहीं गिनते॥88 (ख)॥

चौपाई :

मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला॥

राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ॥1

भावार्थ:-मैं और कुछ समय तक अवधपुरी में रहा और मैंने श्री रामजी की रसीली बाल लीलाएँ देखीं। श्री रामजी की कृपा से मैंने भक्ति का वरदान पाया। तदनन्तर प्रभु के चरणों की वंदना करके मैं अपने आश्रम पर लौट आया॥1

 तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया॥

यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा॥2

भावार्थ:-इस प्रकार जब से श्री रघुनाथजी ने मुझको अपनायातब से मुझे माया कभी नहीं व्यापी। श्री हरि की माया ने मुझे जैसे नचायावह सब गुप्त चरित्र मैंने कहा॥2

 निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा॥

राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई॥3

भावार्थ:-हे पक्षीराज गरुड़! अब मैं आपसे अपना निजी अनुभव कहता हूँ। (वह यह है कि) भगवान्‌ के भजन बिना क्लेश दूर नहीं होते। हे पक्षीराज! सुनिएश्री रामजी की कृपा बिना श्री रामजी की प्रभुता नहीं जानी जाती,3

 जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥

प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥4

भावार्थ:-प्रभुता जाने बिना उन पर विश्वास नहीं जमताविश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति वैसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षीराज! जल की चिकनाई ठहरती नहीं॥4

सोरठा :

 बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।

गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु॥89 क॥

भावार्थ:-गुरु के बिना कहीं ज्ञान हो सकता हैअथवा वैराग्य के बिना कहीं ज्ञान हो सकता हैइसी तरह वेद और पुराण कहते हैं कि श्री हरि की भक्ति के बिना क्या सुख मिल सकता है?89 (क)॥

 कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु।

चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ॥89 ख॥

भावार्थ:-हे तात! स्वाभाविक संतोष के बिना क्या कोई शांति पा सकता है? (चाहे) करोड़ों उपाय करके पच-पच मारिए, (फिर भी) क्या कभी जल के बिना नाव चल सकती है?89 (ख)॥

चौपाई :

 बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं॥

राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा॥1

भावार्थ:-संतोष के बिना कामना का नाश नहीं होता और कामनाओं के रहते स्वप्न में भी सुख नहीं हो सकता और श्री राम के भजन बिना कामनाएँ कहीं मिट सकती हैंबिना धरती के भी कहीं पेड़ उग सकता है?1

बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ॥

श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई॥2

भावार्थ:-विज्ञान (तत्त्वज्ञान) के बिना क्या समभाव आ सकता हैआकाश के बिना क्या कोई अवकाश (पोल) पा सकता हैश्रद्धा के बिना धर्म (का आचरण) नहीं होता। क्या पृथ्वी तत्त्व के बिना कोई गंध पा सकता है?2

 बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा॥

सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाँई॥3

भावार्थ:-तप के बिना क्या तेज फैल सकता हैजल-तत्त्व के बिना संसार में क्या रस हो सकता हैपंडितजनों की सेवा बिना क्या शील (सदाचार) प्राप्त हो सकता हैहे गोसाईं! जैसे बिना तेज (अग्नि-तत्त्व) के रूप नहीं मिलता॥3

 निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा॥

कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा॥4

भावार्थ:-निज-सुख (आत्मानंद) के बिना क्या मन स्थिर हो सकता हैवायु-तत्त्व के बिना क्या स्पर्श हो सकता हैक्या विश्वास के बिना कोई भी सिद्धि हो सकती हैइसी प्रकार श्री हरि के भजन बिना जन्म-मृत्यु के भय का नाश नहीं होता॥4

दोहा :

 बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।

राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥90 क॥

भावार्थ:-बिना विश्वास के भक्ति नहीं होतीभक्ति के बिना श्री रामजी पिघलते (ढरते) नहीं और श्री रामजी की कृपा के बिना जीव स्वप्न में भी शांति नहीं पाता॥90 (क)॥

सोरठा :

 अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।

भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद॥90 ख॥

भावार्थ:-हे धीरबुद्धि! ऐसा विचारकर संपूर्ण कुतर्कों और संदेहों को छोड़कर करुणा की खान सुंदर और सुख देने वाले श्री रघुवीर का भजन कीजिए॥90 (ख)॥

चौपाई

 निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई॥

कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी॥1

भावार्थ:-हे पक्षीराज! हे नाथ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार प्रभु के प्रताप और महिमा का गान किया। मैंने इसमें कोई बात युक्ति से बढ़ाकर नहीं कही है। यह सब अपनी आँखों देखी कही है॥1

 महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा॥

निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं॥2

भावार्थ:-श्री रघुनाथजी की महिमानामरूप और गुणों की कथा सभी अपार एवं अनंत हैं तथा श्री रघुनाथजी स्वयं भी अनंत हैं। मुनिगण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार श्री हरि के गुण गाते हैं। वेदशेष और शिवजी भी उनका पार नहीं पाते॥2

 तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता॥

तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा॥3

भावार्थ:-आप से लेकर मच्छरपर्यन्त सभी छोटे-बड़े जीव आकाश में उड़ते हैंकिंतु आकाश का अंत कोई नहीं पाता। इसी प्रकार हे तात! श्री रघुनाजी की महिमा भी अथाह है। क्या कभी कोई उसकी थाह पा सकता है?3

 रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन॥

सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा॥4

भावार्थ:-श्री रामजी का अरबों कामदेवों के समान सुंदर शरीर है। वे अनंत कोटि दुर्गाओं के समान शत्रुनाशक हैं। अरबों इंद्रों के समान उनका विलास (ऐश्वर्य) है। अरबों आकाशों के समान उनमें अनंत अवकाश (स्थान) है॥4

दोहा :

 मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास।

ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास॥91 क॥

भावार्थ:- अरबों पवन के समान उनमें महान्‌ बल है और अरबों सूर्यों के समान प्रकाश है। अरबों चंद्रमाओं के समान वे शीतल और संसार के समस्त भयों का नाश करने वाले हैं॥91 (क)॥

 काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत।

धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत॥91 ख॥

भावार्थ:-अरबों कालों के समान वे अत्यंत दुस्तरदुर्गम और दुरंत हैं। वे भगवान्‌ अरबों धूमकेतुओं (पुच्छल तारों) के समान अत्यंत प्रबल हैं॥91 (ख)॥

चौपाई :

 प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला॥

तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन॥1

भावार्थ:-अरबों पातालों के समान प्रभु अथाह हैं। अरबों यमराजों के समान भयानक हैं। अनंतकोटि तीर्थों के समान वे पवित्र करने वाले हैं। उनका नाम संपूर्ण पापसमूह का नाश करने वाला है॥1

 हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा॥

कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना॥2

भावार्थ:-श्री रघुवीर करो़ड़ों हिमालयों के समान अचल (स्थिर) हैं और अरबों समुद्रों के समान गहरे हैं। भगवान्‌ अरबों कामधेनुओं के समान सब कामनाओं (इच्छित पदार्थों) के देने वाले हैं॥3

 सारद कोटि अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई॥

बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता॥3

भावार्थ:-उनमें अनंतकोटि सरस्वतियों के समान चतुरता है। अरबों ब्रह्माओं के समान सृष्टि रचना की निपुणता है। वे करोड़ों विष्णुओं के समान पालन करने वाले और अरबों रुद्रों के समान संहार करने वाले हैं॥3

 धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना॥

भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा॥4

भावार्थ:-वे अरबों कुबेरों के समान धनवान्‌ और करोड़ों मायाओं के समान सृष्टि के खजाने हैं। बोझ उठाने में वे अरबों शेषों के समान हैं। (अधिक क्या) जगदीश्वर प्रभु श्री रामजी (सभी बातों में) सीमारहित और उपमारहित हैं॥4

छंद :

 निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।

जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै॥

एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनीस हरिहि बखानहीं।

प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं॥

भावार्थ:-श्री रामजी उपमारहित हैंउनकी कोई दूसरी उपमा है ही नहीं। श्री राम के समान श्री राम ही हैंऐसा वेद कहते हैं। जैसे अरबों जुगनुओं के समान कहने से सूर्य। (प्रशंसा को नहीं वरन) अत्यंत लघुता को ही प्राप्त होता है (सूर्य की निंदा ही होती है)। इसी प्रकार अपनी-अपनी बुद्धि के विकास के अनुसार मुनीश्वर श्री हरि का वर्णन करते हैंकिंतु प्रभु भक्तों के भावमात्र को ग्रहण करने वाले और अत्यंत कपालु हैं। वे उस वर्णन को प्रेमसहित सुनकर सुख मानते हैं।

दोहा :

 रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।

संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ॥92 क॥

भावार्थ:-श्री रामजी अपार गुणों के समुद्र हैंक्या उनकी कोई थाह पा सकता हैसंतों से मैंने जैसा कुछ सुना थावही आपको सुनाया॥92 (क)॥

सोरठा :

 भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।

तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन॥92 ख॥

भावार्थ:-सुख के भंडारकरुणाधाम भगवा्‌न भाव (प्रेम) के वश हैं। (अतएव) ममतामद और मान को छोड़कर सदा श्री जानकीनाथजी का ही भजन करना चाहिए॥92 (ख)॥

चौपाई :

 सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए॥

नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना॥1

भावार्थ:-भुशुण्डिजी के सुंदर वचन सुनकर पक्षीराज ने हर्षित होकर अपने पंख फुला लिए। उनके नेत्रों में (प्रेमानंद के आँसुओं का) जल आ गया और मन अत्यंत हर्षित हो गया। उन्होंने श्री रघुनाथजी का प्रताप हृदय में धारण किया॥1

 पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना॥

पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा॥2

भावार्थ:-वे अपने पिछले मोह को समझकर (याद करके) पछताने लगे कि मैंने अनादि ब्रह्म को मनुष्य करके माना। गरुड़जी ने बार-बार काकभुशुण्डिजी के चरणों पर सिर नवाया और उन्हें श्री रामजी के ही समान जानकर प्रेम बढ़ाया॥2

 गुर बिनु भव निध तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई॥

संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता॥3

भावार्थ:-गुरु के बिना कोई भवसागर नहीं तर सकताचाहे वह ब्रह्माजी और शंकरजी के समान ही क्यों न हो। (गरुड़जी ने कहा-) हे तात! मुझे संदेह रूपी सर्प ने डस लिया था और (साँप के डसने पर जैसे विष चढ़ने से लहरें आती हैं वैसे ही) बहुत सी कुतर्क रूपी दुःख देने वाली लहरें आ रही थीं॥3

 तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक॥

तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना॥4

भावार्थ:-आपके स्वरूप रूपी गारुड़ी (साँप का विष उतारने वाले) के द्वारा भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी ने मुझे जिला लिया। आपकी कृपा से मेरा मोह नाश हो गया और मैंने श्री रामजी का अनुपम रहस्य जाना॥4

दोहा :

ताहि प्रसंसि बिबिधि बिधि सीस नाइ कर जोरि।

बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि॥93 क॥

भावार्थ:-उनकी (भुशुण्डिजी की) बहुत प्रकार से प्रशंसा करकेसिर नवाकर और हाथ जोड़कर फिर गरुड़जी प्रेमपूर्वक विनम्र और कोमल वचन बोले-॥93 (क)॥

 प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि।

कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि॥93 ख॥

भावार्थ:-हे प्रभो! हे स्वामी! मैं अपने अविवेक के कारण आपसे पूछता हूँ। हे कृपा के समुद्र! मुझे अपना ‘निज दास’ जानकर आदरपूर्वक (विचारपूर्वक) मेरे प्रश्न का उत्तर कहिए॥93 (ख)॥

चौपाई :

 तुम्ह सर्बग्य तग्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा॥

ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा॥1

भावार्थ:-आप सब कुछ जानने वाले हैंतत्त्व के ज्ञाता हैंअंधकार (माया) से परेउत्तम बुद्धि से युक्तसुशीलसरल आचरण वालेज्ञानवैराग्य और विज्ञान के धाम और श्री रघुनाथजी के प्रिय दास हैं॥1

 कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई॥

राम चरित सुर सुंदर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी॥2

भावार्थ:-आपने यह काक शरीर किस कारण से पायाहे तात! सब समझाकर मुझसे कहिए। हे स्वामी! हे आकाशगामी! यह सुंदर रामचरित मानस आपने कहाँ पायासो कहिए॥2

 नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं॥

मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई॥3

भावार्थ:-हे नाथ! मैंने शिवजी से ऐसा सुना है कि महाप्रलय में भी आपका नाश नहीं होता और ईश्वर (शिवजी) कभी मिथ्या वचन कहते नहीं। वह भी मेरे मन में संदेह है॥3

 अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा॥

अंड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी॥4

भावार्थ:-(क्योंकि) हे नाथ! नागमनुष्यदेवता आदि चर-अचर जीव तथा यह सारा जगत्‌ काल का कलेवा है। असंख्य ब्रह्मांडों का नाश करने वाला काल सदा बड़ा ही अनिवार्य है॥4

सोरठा :

 तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन।

मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल॥94 क॥

भावार्थ:-(ऐसा वह) अत्यंत भयंकर काल आपको नहीं व्यापता (आप पर प्रभाव नहीं दिखलाता) इसका क्या कारण हैहे कृपालु मुझे कहिएयह ज्ञान का प्रभाव है या योग का बल है?94 (क)॥

दोहा :

 प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग।

कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग॥94 ख॥

भावार्थ:-हे प्रभो! आपके आश्रम में आते ही मेरा मोह और भ्रम भाग गया। इसका क्या कारण हैहे नाथ! यह सब प्रेम सहित कहिए॥94 (ख)॥

चौपाई :

 गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनुरागा॥

धन्य धन्य तव मति उरगारी। प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी॥1

भावार्थ:-हे उमा! गरुड़जी की वाणी सुनकर काकभुशुण्डिजी हर्षित हुए और परम प्रेम से बोले- हे सर्पों के शत्रु! आपकी बुद्धि धन्य है धन्य है! आपके प्रश्न मुझे बहुत ही प्यारे लगे॥1

 सुनि तव प्रश्न सप्रेम सुहाई। बहुत जनम कै सुधि मोहि आई॥

सब निज कथा कहउँ मैं गाई। तात सुनहु सादर मन लाई॥2

भावार्थ:-आपके प्रेमयुक्त सुंदर प्रश्न सुनकर मुझे अपने बहुत जन्मों की याद आ गई। मैं अपनी सब कथा विस्तार से कहता हूँ। हे तात! आदर सहित मन लगाकर सुनिए॥2

 जप तप मख सम दम ब्रत दाना। बिरति बिबेक जोग बिग्याना॥

सब कर फल रघुपति पद प्रेमा। तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा॥3

भावार्थ:-अनेक जपतपयज्ञशम (मन को रोकना)दम (इंद्रियों को रोकना)व्रतदानवैराग्यविवेकयोगविज्ञान आदि सबका फल श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होना है। इसके बिना कोई कल्याण नहीं पा सकता॥3

 एहिं तन राम भगति मैं पाई। ताते मोहि ममता अधिकाई॥

जेहि तें कछु निज स्वारथ होई। तेहि पर ममता कर सब कोई॥4

भावार्थ:-मैंने इसी शरीर से श्री रामजी की भक्ति प्राप्त की है। इसी से इस पर मेरी ममता अधिक है। जिससे अपना कुछ स्वार्थ होता हैउस पर सभी कोई प्रेम करते हैं॥4

सोरठा :

 पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं।

अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित॥95 क॥

भावार्थ:-हे गरुड़जी! वेदों में मानी हुई ऐसी नीति है और सज्जन भी कहते हैं कि अपना परम हित जानकर अत्यंत नीच से भी प्रेम करना चाहिए॥95 (क)॥

 पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।

कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम॥95 ख॥

भावार्थ:-रेशम कीड़े से होता हैउससे सुंदर रेशमी वस्त्र बनते हैं। इसी से उस परम अपवित्र कीड़े को भी सब कोई प्राणों के समान पालते हैं॥95 (ख)॥

चौपाई :

 स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा॥

सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा। जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा॥1

भावार्थ:-जीव के लिए सच्चा स्वार्थ यही है कि मनवचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम हो। वही शरीर पवित्र और सुंदर है जिस शरीर को पाकर श्री रघुवीर का भजन किया जाए॥1

 राम बिमुख लहि बिधि सम देही। कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही॥

राम भगति एहिं तन उर जामी। ताते मोहि परम प्रिय स्वामी॥2

भावार्थ:-जो श्री रामजी के विमुख है वह यदि ब्रह्माजी के समान शरीर पा जाए तो भी कवि और पंडित उसकी प्रशंसा नहीं करते। इसी शरीर से मेरे हृदय में रामभक्ति उत्पन्न हुई। इसी से हे स्वामी यह मुझे परम प्रिय है॥2

 तजउँ न तन निज इच्छा मरना। तन बिनु बेद भजन नहिं बरना॥

प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा॥3

भावार्थ:-मेरा मरण अपनी इच्छा पर हैपरंतु फिर भी मैं यह शरीर नहीं छोड़ताक्योंकि वेदों ने वर्णन किया है कि शरीर के बिना भजन नहीं होता। पहले मोह ने मेरी बड़ी दुर्दशा की। श्री रामजी के विमुख होकर मैं कभी सुख से नहीं सोया॥3

 नाना जनम कर्म पुनि नाना। किए जोग जप तप मख दाना॥

कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं॥4

भावार्थ:-अनेकों जन्मों में मैंने अनेकों प्रकार के योगजपतपयज्ञ और दान आदि कर्म किए। हे गरुड़जी! जगत्‌ में ऐसी कौन योनि हैजिसमें मैंने (बार-बार) घूम-फिरकर जन्म न लिया हो॥4

 देखेउँ करि सब करम गोसाईं। सुखी न भयउँ अबहिं की नाईं॥

सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी। सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी॥5

भावार्थ:-हे गुसाईं! मैंने सब कर्म करके देख लिएपर अब (इस जन्म) की तरह मैं कभी सुखी नहीं हुआ। हे नाथ! मुझे बहुत से जन्मों की याद है, (क्योंकि) श्री शिवजी की कृपा से मेरी बुद्धि को मोह ने नहीं घेरा॥5

दोहा :

 प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस।

सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस॥96 क॥

भावार्थ:-हे पक्षीराज! सुनिएअब मैं अपने प्रथम जन्म के चरित्र कहता हूँजिन्हें सुनकर प्रभु के चरणों में प्रीति उत्पन्न होती हैजिससे सब क्लेश मिट जाते हैं॥96 (क)॥

 पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल।

नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल॥96 ख॥

भावार्थ:-हे प्रभो! पूर्व के एक कल्प में पापों का मूल युग कलियुग थाजिसमें पुरुष और स्त्री सभी अधर्मपारायण और वेद के विरोधी थे॥96 (ख)॥

चौपाई :

 तेहिं कलिजुग कोसलपुर जाई। जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई॥

सिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निंदक अभिमानी॥1

भावार्थ:-उस कलियुग में मैं अयोध्यापुरी में जाकर शूद्र का शरीर पाकर जन्मा। मैं मनवचन और कर्म से शिवजी का सेवक और दूसरे देवताओं की निंदा करने वाला अभिमानी था॥1

धन मद मत्त परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला॥

जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी॥2

भावार्थ:-मैं धन के मद से मतवालाबहुत ही बकवादी और उग्रबुद्धि वाला थामेरे हृदय में बड़ा भारी दंभ था। यद्यपि मैं श्री रघुनाथजी की राजधानी में रहता थातथापि मैंने उस समय उसकी महिमा कुछ भी नहीं जानी॥2

 अब जाना मैं अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा॥

कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई॥3

भावार्थ:-अब मैंने अवध का प्रभाव जाना। वेदशास्त्र और पुराणों ने ऐसा गाया है कि किसी भी जन्म में जो कोई भी अयोध्या में बस जाता हैवह अवश्य ही श्री रामजी के परायण हो जाएगा॥3

 अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी॥

सो कलिकाल कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी॥4

भावार्थ:-अवध का प्रभाव जीव तभी जानता हैजब हाथ में धनुष धारण करने वाले श्री रामजी उसके हृदय में निवास करते हैं। हे गरुड़जी! वह कलिकाल बड़ा कठिन था। उसमें सभी नर-नारी पापपरायण (पापों में लिप्त) थे॥4

दोहा :

 कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।

दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ॥97 क॥

भावार्थ:-कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लियासद्ग्रंथ लुप्त हो गएदम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिए॥97 (क)॥

 भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।

सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म॥97 ख॥

भावार्थ:-सभी लोग मोह के वश हो गएशुभ कर्मों को लोभ ने हड़प लिया। हे ज्ञान के भंडार! हे श्री हरि के वाहन! सुनिएअब मैं कलि के कुछ धर्म कहता हूँ॥97 (ख)॥

चौपाई :

 बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।

द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥1

भावार्थ:-कलियुग में न वर्णधर्म रहता हैन चारों आश्रम रहते हैं। सब पुरुष-स्त्री वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता॥1

 मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा॥

मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥2

भावार्थ:-जिसको जो अच्छा लग जाएवही मार्ग है। जो डींग मारता हैवही पंडित है। जो मिथ्या आरंभ करता (आडंबर रचता) है और जो दंभ में रत हैउसी को सब कोई संत कहते हैं॥2

 सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥

जो कह झूँठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥3

भावार्थ:-जो (जिस किसी प्रकार से) दूसरे का धन हरण कर लेवही बुद्धिमान है। जो दंभ करता हैवही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना जानता हैकलियुग में वही गुणवान कहा जाता है॥3

 निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥

जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥4

भावार्थ:-जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए हैकलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान्‌ है। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ हैंवही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है॥4

दोहा :

 असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।

तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं॥98 क॥

भावार्थ:-जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-भक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं वे ही योगी हैंवे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं॥98 (क)॥

सोरठा :

 जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।

मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ॥98 ख॥

भावार्थ:-जिनके आचरण दूसरों का अपकार (अहित) करने वाले हैंउन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मनवचन और कर्म से लबार (झूठ बकने वाले) हैंवे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं॥98 (ख)॥

चौपाई :

 नारि बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं॥

सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेल जनेऊ लेहिं कुदाना॥1

भावार्थ:-हे गोसाईं! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह (उनके नचाए) नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं॥1

सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी॥

गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥2

भावार्थ:-सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवताब्राह्मणवेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणों के धाम सुंदर पति को छोड़कर पर पुरुष का सेवन करती हैं॥2

 सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना॥

गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा॥3

भावार्थ:-सुहागिनी स्त्रियाँ तो आभूषणों से रहित होती हैंपर विधवाओं के नित्य नए श्रृंगार होते हैं। शिष्य और गुरु में बहरे और अंधे का सा हिसाब होता है। एक (शिष्य) गुरु के उपदेश को सुनता नहींएक (गुरु) देखता नहीं (उसे ज्ञानदृष्टि) प्राप्त नहीं है)॥3

 हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई॥

मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥4

भावार्थ:-जो गुरु शिष्य का धन हरण करता हैपर शोक नहीं हरण करतावह घोर नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकों को बुलाकर वही धर्म सिखलाते हैंजिससे पेट भरे॥4

दोहा :

 ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।

कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात॥99 क॥

भावार्थ:-स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञान के सिवा दूसरी बात नहीं करतेपर वे लोभवश कौड़ियों (बहुत थोड़े लाभ) के लिए ब्राह्मण और गुरु की हत्या कर डालते हैं॥99 (क)॥

 बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।

जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि॥99 ख॥

भावार्थ:-शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं (और कहते हैं) कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैंजो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। (ऐसा कहकर) वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं॥99 (ख)॥

चौपाई :

 पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने॥

तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥1

भावार्थ:-जो पराई स्त्री में आसक्तकपट करने में चतुर और मोहद्रोह और ममता में लिपटे हुए हैंवे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले) ज्ञानी हैं। मैंने उस कलियुग का यह चरित्र देखा॥1

 आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥

कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥2

भावार्थ:-वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैंजो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैंउनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेद की निंदा करते हैंवे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पड़े रहते हैं॥2

 जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।

पनारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥3

भावार्थ:-तेलीकुम्हारचाण्डालभीलकोल और कलवार आदि जो वर्ण में नीचे हैंस्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं॥3

 ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥

बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी॥4

भावार्थ:-वे अपने को ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण अपढ़लोभीकामीआचारहीनमूर्ख और नीची जाति की व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं॥4

 सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना॥

सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा॥5॥।

भावार्थ:-शूद्र नाना प्रकार के जपतप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन (व्यास गद्दी) पर बैठकर पुराण कहते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता॥5

दोहा :

 भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग।

करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग॥100 क॥

भावार्थ:-कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गए। वे पाप करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःखभयरोगशोक और (प्रिय वस्तु का) वियोग पाते हैं॥100 (क)॥

 श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक।

तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक॥100 ख॥

भावार्थ:-वेद सम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग हैमोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेकों नए-नए पंथों की कल्पना करते हैं॥100 (ख)॥

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